कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष मे तुलसी विवाह के दिन आने वाली इस एकादशी को प्रमुख रूप से देवउठनी एकादशी या प्रबोधिनी एकादशी कहा जाता है।
शास्त्रों के अनुसार प्रबोधिनी एकादशी के दिन देवतागण अपनी निद्रा से जागते हैं । देवताओं का दिन 6 महीने का और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है। अर्थात वे 6 महीने जागते हैं और 6 महीने शयन करते हैं।
शास्त्रों के अनुसार आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की हरिशयनी एकादशी को भगवान विष्णु शयन प्रारंभ करते है और प्रबोधिनी एकादशी को अपनी शेष शय्या से योगनिद्रा से जाग जाते हैं। इसी दिन से सनातन हिन्दू धर्म के सभी मांगलिक कार्य प्रारंभ हो जाते हैं।
इगास नहीं एकादशी
देवभूमि उत्तराखंड में एकादशी के दिन देवी-देवताओं का व्रत, पूजन-अर्चन किया जाता है एवं पारंपरिक लोकनृत्य से देवी-देवताओं के जागरण का उत्सव मनाया जाता हैं।
पहाड़ी मान्यता के अनुसार जब किसी कारणवश जो लोग कार्तिक कृष्ण अमावस्या को दीपावली का पर्व नहीं मना पाते, वे लोग देवउठनी एकादशी को दीपावाली उत्सव मनाते है। और कुमाऊं क्षेत्र में इसे बूढ़ी दीपावली के रूप में मनाया जाता है। कालांतर मे उत्तराखंड के लोकपर्व एकादशी का अपभ्रंश उच्चारण गढ़वाल क्षेत्र में इगास कहा जानें लगा।
इगास एक अपभ्रंश शब्द है इसलिए इसका शुद्ध रूप से उच्चारण किया जाना चाहिए अर्थात इसको एकादशी ही कहना चाहिए।
देवउठनी एकादशी का महात्म्य
पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में वर्णित एकादशी-माहात्म्य के अनुसार श्री हरि-प्रबोधिनी (देवउठनी) एकादशी का व्रत करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा सौ राजसूय यज्ञों का फल मिलता है। इस परमपुण्यप्रदाएकादशी के विधिवत व्रत से सब पाप नष्ट हो जाते हैं तथा व्रती मरणोपरान्त शाश्वत मुक्ति को प्राप्त करके भगवान विष्णु के धाम जाता है।
इस एकादशी के दिन भक्त श्रद्धा के साथ जो कुछ भी जप-तप, स्नान-दान, होम करते हैं, वह सब अक्षय फलदायक हो जाता है। देवउठनी एकादशी के दिन व्रतोत्सव करना प्रत्येक सनातनधर्मी का आध्यात्मिक कर्तव्य है।