उत्तराखंड की राजनीति एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की चर्चा पर आ कर ठहर गई है। मुख्यमंत्री के रूप में पुष्कर सिंह धामी को चुनने के बाद ऐसा प्रतीत हो रहा था कि एंटी इनकम्बेंसी के बाद भी अगर भाजपा राज्य में सरकार बनाने में सफल रहती है तो शायद यह मुद्दा इस बार बड़ी बहस में नहीं बदलेगा और सर्वसम्मति से धामी ही कुर्सी पर विराजते।
लेकिन होनी ने वही किया जो उत्तराखंड का भाग्य रहा है। भीषण ‘मोदी लहर’ के बावजूद पुष्कर सिंह धामी अपनी ही सीट हार गए। नित्यानंद स्वामी भी इस पहाड़ी राज्य में हारे। बीसी खंडूड़ी को जब सीएम का चेहरा बना गया तब वो भी चुनाव हारे थे। कॉन्ग्रेस के कद्दावर माने जाने वाले नेता हरीश रावत तो पिछली बार दो-दो विधानसभा से चुनाव हारे और अब इस बार भी उन्हें लालकुआँ सीट से हार नसीब हुई है। इस तरह उत्तराखंड की जनता ने ‘हारदा’ और उनके उत्तराखंडियत के स्वप्न पर भी पूर्ण विराम लगा दिया।
खटीमा उत्तराखंड में उधम सिंह नगर जिले के विधानसभा क्षेत्रों में से एक है। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान खटीमा निर्वाचन क्षेत्र में कुल 1,06,200 मतदाता थे। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी खटीमा सीट से चुनाव हार गए हैं।
पुष्कर सिंह धामी खटीमा सीट से तीसरी बार चुनाव मैदान में थे। इससे पहले वे दो बार विधायक रह चुके हैं। कॉन्ग्रेस के उम्मीदवार भुवन चंद्र कापड़ी ने उन्हें 6,579 वोटों से हरा दिया। उत्तराखंड में 70 विधानसभा सीटें हैं और इनमें 70वाँ स्थान खटीमा का है।
उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद की डिबेट पर सीएम धामी की जीत के साथ ही पूर्णविराम लग सकता था, लेकिन अब पहाड़ी राज्य को एकबार फिर इस पद के लिए मंथन करना पड़ेगा।
भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कुछ इन प्रमुख बिन्दुओं पर विचार कर सकता है
भाजपा सैद्धांतिक स्तर पर पड़ोसी पहाड़ी राज्य हिमाचल के पिछले चुनाव का रास्ता अपनाते हुए इस विवाद का एक हल निकालना चाहेगी क्योंकि यह दीर्घकालीन फायदे भाजपा को देगा और भाजपा के CM पद की बहस को ख़त्म कर देगा।
2017 में BJP के CM उम्मीदवार धूमल की भी हार हुई थी। तब BJP के प्रत्याशी धूमल को सुजानपुर सीट से हार का सामना करना पड़ा। तब हिमाचल के पूर्व CM को उनके कॉन्ग्रेस प्रतिद्वंद्वी राजेंद्र सिंह राणा ने करीब 3,500 वोट से हराया था। जिसके बाद प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने खुद जयराम ठाकुर के नाम का प्रस्ताव रखा, जिस पर आख़िरी मुहर भी लगी।
यहाँ पर पार्टी अपनी इसी लीक के साथ चलते हुए अपने सिद्धांतों का हवाला दे कर सभी नेताओं को संतुष्ट कर सकती है।
मुख्यमंत्री धामी की आख़िरी ओवर की बल्लेबाज़ी खटीमा के मतदाताओं को प्रभावित नहीं कर पाई। इसकी कुछ प्रमुख वजहें थीं और उनमें से एक मुस्लिम आबादी और बाहरी मतदाताओं पर अधिक विश्वास भी कहा जा सकता है।
जिस मोदी लहर में कॉन्ग्रेसी नेता भाजपा में आकर प्रचंड बहुमत से जीते, उसमें CM का हार जाना व फिर उन्हें CM पद देना अन्य नेताओं को नाराज़ कर सकता है। यह पार्टी के भीतर ही बड़े अंतराल से जीतने में कामयाब रहे नेताओं की नाराजगी की भी वजह बन सकता है और केंद्र अब यह जोखिम हर हाल में नहीं उठाना चाहता।
भाजपा पर इस समय अपनी छवि सुधारने का दबाव है और वह अपने पहले ही फैसले से यह साबित नहीं करना चाहेगी कि पार्टी के भीतर किसी तरह का असंतोष है। भाजपा अब इस तरह की बग़ावत को भी ध्यान में रख सकती है। विजयी भाजपा नेता भी इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि यदि मोदी लहर न होती तो भाजपा आज इस स्थिति में भी न होती। टिहरी से किशोर उपाध्याय एवं कोटद्वार सीट पर ऋतू खंडूड़ी इसका सबसे प्रबल उदाहरण हैं।
खटीमा के आसपास की सीटों पर भी भाजपा का प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा। नानकमत्ता सीट पर भी कॉन्ग्रेस के प्रत्याशी की जीत हुई। इसके अलावा ‘भूतपूर्व वसूली पत्रकारों’ के विधायक बनने और उन के सीट छोड़ने की अटकलों को गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिए। ऐसे लोगों से पार्टी हमेशा सतर्क ही रहना चाहेगी।
इस बार भाजपा की जीत राज्य में स्थिरता की उम्मीद में हुई है। प्रधानमंत्री मोदी किस पर यक़ीन जताते हैं, यह बड़ा फ़ैक्टर हो सकता है। हालाँकि राज्य में जो नुकसान भाजपा को अभी उठाना पड़ा है उस से सबक ले कर प्रदेश की सत्ता में आते ही कठिन फैसले लेने होंगे।
ऐसे में इस बात की भी प्रबल संभावना बन रही हैं कि भाजपा किसी ऐसे व्यक्ति को राज्य की कमान सौंपे जिसकी ओर अभी भी किसी का ध्यान न हो। यही काम भाजपा ने तीरथ सिंह रावत के बाद पुष्कर सिंह धामी को चुनते वक्त भी किया था। धामी को रेस में कहीं ना होने के बावजूद चुन लिया गया। इस समय भी सोशल मीडिया एवं राजनीतिक गलियारों में अनिल बलूनी के नाम पर चर्चा तेज हो गई है।
छात्र जीवन से ही राजनीति में कदम रखने वाले अनिल बलूनी भारतीय जनता पार्टी वर्तमान में राष्ट्रीय प्रवक्ता का दायित्व संभाल रहे हैं। उन्होंने इस बार उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशियों के लिए ‘डोर-टू-डोर’ वोट माँगे।
इसके अलावा, शांत स्वभाव के अनिल बलूनी गृहमंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी माने जाते हैं और इस समय वे राज्यसभा के सांसद हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि वो उत्तराखंड की जनता की नब्ज जानते हैं और अपने हर शब्द को बेहद सोच-समझकर बोलते हैं। हालाँकि यह भी संभव है कि उनकी चर्चा सिर्फ सोशल मीडिया की अटकलों तक ही सीमित रहे।
डेमोग्राफी में बदलाव ने निभाई भूमिका
पहाड़ी राज्य के उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे चार जिलों में निर्णायक भूमिका में मुस्लिम मतदाता रहे। गढ़वाल और कुमाऊँ, दोनों क्षेत्रों की बात करें तो यहाँ कुल चार ऐसे जिले में हैं, जहाँ मुस्लिम मतदाताओं की अच्छी खासी आबादी है।
गढ़वाल में हरिद्वार जिले में मुस्लिम मतदाताओं की लगभग 34% आबादी है, जबकि इसी क्षेत्र के देहरादून में 13% मुस्लिम मतदाताओं की भागिदारी है।
वहीं, कुमाऊँ के नैनीताल में मुस्लिम मतदाताओं की आबादी लगभग 13% है, जबकि उधमसिंह नगर में 23% मुस्लिम मतदाता रहते हैं। इस तरह इन चार जिलों में मुस्लिम मतदाताओं का एकजुट वोट किसी भी दल और उम्मीदवार के भाग्य का फैसले करने के लिए निर्णायक माने जाते हैं।
अकेले उधमसिंह नगर में जसपुर, काशीपुर, बाजपुर, गदरपुर, रुद्रपुर, किच्छा, सितारगंज, नानकमत्ता और खटीमा कुल 9 विधानसभा सीटें हैं। बदलती डेमोग्राफी की समस्या को देखते हुए भाजपा को यहाँ से नफा-नुक्सान का आकलन अवश्य करना चाहिए कि आखिर उन्हें किस दिशा में किस तरह के प्रयास करने की आवश्यकता है।