बिहार और उत्तर प्रदेश को आप भारत की राजनीति से अलग नहीं कर सकते। आप चुनाव चाहे बंगाल में लड़ रहे हों, मुंबई में या फिर पंजाब में, यूपी-बिहार का रुतबा ऐसा है कि आपको जीतने या हारने के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार का जिक्र करना ही पड़ता है। इस बार ये कारनामा पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने किया है।
पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी (Charanjit Singh Channi) ने बिहार और यूपी के लोगों का मजाक बनाया है और इसमें उनका साथ दिया है प्रियंका वाड्रा ने। प्रियांका वाड्रा के साथ एक जनसभा के दौरान चन्नी ने कहा कि ‘प्रियंका पंजाबियों की बहु है, सारे पंजाबियों एक हो जाओ, जो यूपी, बिहार और दिल्ली से आकर यहाँ आकर राज करना चाहते हैं, उनको पंजाब फटकने नहीं देना है।’
चन्नी के इस बयान के पब्लिक में आने के बाद प्रतिक्रियाओं की रस्म शुरू हो गई। कई सारी प्रतिक्रियाएँ देखने के बाद मैंने महसूस किया कि इनमें से कुछ गर्जनाएँ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ भी लगाई गईं।
इन्टरनेट पर हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई-पारसी-ओवैसी-खलीफा करने वालों ने फ़ौरन नीतीश कुमार से इस्तीफ़ा माँग लिया। सत्यान्वेषी पत्रकार रवीश कुमार इनमें से कुछ नहीं करते लेकिन उन्होंने इस विषय पर भी मौन धारण कर लिया। वो अच्छी तरह से जानते हैं कि किस विषय पर ना बोल कर उनकी निष्पक्षता कायम रह सकती है। पत्रकारिता के विद्यार्थी उन्हें इसलिए उन्हें अपना आदर्श भी मानते हैं।
इस्तीफ़ा माँगना राष्ट्रीय रोजगार घोषित कर दिया जाना चाहिए। आज के समय में जो कुछ नहीं कर रहा है वो भी किसी ना किसी नेता से इस्तीफा माँग लेता है। कल पुष्कर सिंह धामी का चाहिए था, आज नीतीश कुमार का! ट्वीट ही तो कुलजमा एक करना है।
नीतीश कुमार ने मगर अभी तक इस्तीफ़ा नहीं दिया है। नीतीश कुमार को हैशटैग से फर्क नहीं पड़ता। किसी भी राजनीतिक दल को ट्विटर के हैशटैग से फर्क नहीं पड़ता। जब तक उचित संख्या उनके पक्ष में है, तब तक उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि आप उठक-बैठक कर रहे हैं या अपने सर के बल खड़े हो कर पैर के नाखून का जोर लगा कर ट्वीट कर रहे हैं।
ऐसे में, जो बिहार के लोग पंजाब के CM चन्नी से आक्रोशित हो कर नीतीश कुमार से सवाल कर रहे हैं क्या वो इन संख्या बलों को प्रभावित करने में अपना योगदान देते हैं? क्या आक्रोशित लोग वोट देने अपने घर-गाँव जाते हैं? आप किस मुँह से अपने नेताओं की जवाबदेही घोषित करते हैं जब आप सामान्य नागरिक होने तक का फ़र्ज़ नहीं निभा सकते अपने स्तर पर?
आप वोट करिए, आउटरेज नहीं! या इस से बेहतर कि पहले वोट करिए और फिर आउटरेज़! वो तो नीतीश कुमार ही हैं जिन्होंने हैशटैग से घबरा कर चन्नी को जवाब दे दिया है। उनकी जगह लालू होते तो….
लालू यादव के ‘सुनहरे लोकतान्त्रिक’ दौर के बाद आपके पास नीतीश कुमार बचता है। नीतीश के बाद कोई और चीता आएगा। यानी ‘भोला’ सिर्फ़ वही है, जिसका अभी तक नम्बर नहीं आ रहा। सोशल मीडिया से हम और आप किसी को भी ‘पेलने’ का ख़्वाब मन में पाले रहते हैं।
दलीलें नालंदा और चंद्रगुप्त की देते हैं। आज और अभी इंटरनेट बंद कर दिया जाए तो आप अपने कमरे का किराया भी नहीं दे सकेंगे, चन्नी को सबक़ सिखाना तो दूर! आपको और हमें सब्जीवाला मुफ्त में धनिया देने को राजी नहीं होता तो फिर मुख्यमंत्री इस्तीफ़ा देने को राजी हो जाएगा?
जड़ें मजबूत करने के लिए उन्हें सींचना होता है। इन्टरनेट पर मजहबी या भड़काऊ कट्टरता की हीनभावना बेचकर आप सिर्फ़ अपना बैंक बैलेंस सींच सकते हैं, वो भी लम्बे समय के लिए नहीं। सत्ता यदि आपसे प्रभावित नहीं होती है तो आपको सत्ता से भी प्रभावित नहीं होना चाहिए।
हम लोकतंत्र की ABCD के मजे मोमो के साथ ले कर अपनी कैलोरी गिनने में व्यस्त हो जाते हैं। इतने में कभी महाराष्ट्र में कोई ठाकरे तो कभी पंजाब का कोई चन्नी अपने मन की बात कहकर निकल जाता है। चन्नी के साथ हँसने वाली प्रियंका वाड्रा या उसका भाई कल बिहार और यूपी आ कर पंजाब वालों के बारे में ऐसी ही बातें कह जाएगा। हम और आप पर इसका क्या फर्क पड़ता है ये न चन्नी तय करेगा, ना ही भाई-बहन और ना ही नीतीश कुमार। यह हमला तो पहचान पर होता रहा है।
इधर, जो हमारे अपने स्तर की एकमात्र ज़िम्मेदारी है वह भी पूरी नहीं की जा सकती। लेकिन उत्तेजना कह रही है कि नीतीश कुमार ने चन्नी को जवाब क्यों नहीं दिया? ईंट से ईंट नहीं बजाई। क्यों भाई वो तुम्हारा चचा लगता है?
सवाल एक चन्नी के बयान का नहीं है। बिहार को ले कर लोगों के विचार क्यों नहीं बदल रहे। नेतृत्व से हर पीढ़ी सिर्फ सवाल ही क्यों करती दिखती है? नीतीश कुमार ने एक बार किसी समाचार चैनल से बात करते हुए कहा था कि बिहार का आदमी जहाँ जाता है, निर्माण करता है और उसे इस बात पर गर्व है।
मुझे नीतीश कुमार के वो शब्द आज भी भावुक करते हैं। बिहार और उत्तराखंड की पीड़ा लगभग एक समान है। इस दर्द को इसलिए भी करीब से महसूस किया जा सकता है। गत वर्ष बिहार में मतदान के वक्त मैंने अपने ही पहाड़ों में रोजगार के लिए रह रहे एक श्रमिक से पूछा था कि वो मतदान करने घर क्यों नहीं जा रहा?
सर्वहारा ने मुझे बेहद सपाट शब्दों में बताया कि यदि कोई पैसा दे तो वो चला जाएगा और उसे वोट दे आएगा, अपने खर्चे से वो इतना सरदर्द क्यों ले? यह तो एक मेहनत-मजदूरी कर रहे श्रमिक की व्यथा थी। ऐसे लोगों की मजबूरी को समझा जा सकता है लेकिन सोशल मीडिया पर लोगों के आक्रोश को ‘यूट्यूब व्यूज’ में तब्दील कर अपनी तोंद मोटी कर रहे लोगों की क्या मजबूरी हो सकती है? उनकी ‘वंडरलस्ट लाइफ’ वाली छुट्टियों में सेंध कौन लगाए?
बुर्जुआ से खतरनाक नव-बुर्जुआ होता है। वह मतदान नहीं करता, मतदान करने वालों को हीन समझता है और राजनीति में उतरकर राजनीति बदलने की सोच रखने वालों को घटिया किस्म मानता है। खेती करने वालों से नफरत करता है चाहे पिता के शरीर की अस्थियाँ बिक गई हों खेती कर उसे नव-बुर्जुआ बनाते। लेकिन नव-बुर्जुआ आज पीयर ग्रुप की निगाह में आने या बने रहने के लिए मुर्गा पूरी कट्टरता से चबाता है।
उत्तराखंड चुनाव से पूर्व दिल्ली-नॉएडा, मुंबई बैठे ऐसे ही नव-बुर्जुआ एंटी इनकम्बेंसी चिल्लाते हैं। सोशल मीडिया पर फेक अकाउंट से सत्ता से कठिन सवाल पूछते हैं और मन ही मन चाहते हैं कि वो तो वोट करेगा नहीं, लेकिन कम से कम गाँव में बैठा कोई ‘अनपढ़ आदमी’ उसके क्रोध को वोट में तब्दील करे।
लेकिन क्या अगर आज नीतीश कुमार की जगह कोई और ठोस और दमदार होता तो चन्नी ऐसा बयान बिहार के ‘भैय्या’ के बारे में देता? शायद वो तब भी ऐसा बयान देता। नीतीश की जगह कोई और मुख्यमंत्री बिहार का होता तो वो भी शायद मौन धारण कर लेता, लेकिन आपके पास कम से कम सवाल करने का एक बेहतर अवसर होता कि आपने सत्ता में दखल दी और इसके बावजूद सत्ता ने आपकी अस्मिता के प्रश्न पर दखल नहीं दी।
पंचायत चुनाव या विधानसभा चुनाव में वोटों की बोली लगती है। यह बहुत आम बात है। दोनों हाथ से लेने वाला भी मगर उसका मुंडन ज्यादा सलीके से करता है, जिसका उसे भान होता है कि ये कल नतीजे आने के बाद उस पर जरूर डंक मारेगा।
अगर नेता जी जीत गए और रुपए लेने वाले का उस से काम पड़ गया तो वो उसका सर दागता है और चार लोगों के सामने जोर से कह देता है कि ‘क्यों तेरी तसल्ली लाल-हरे नोटों से नहीं हुई?’
दूसरी तरफ, ‘कुछ नहीं लेने वाला’ होता है। नेता जी जीतने के बाद उसकी गली में नहीं जाते, जाते भी हैं तो बस उतनी देर जितने में काम-काज का जिक्र न आए।
दैनिक इन्टरनेट के इस्तेमाल ने हमारे आक्रोश को चायनीज समान में तब्दील कर दिया है। हम सुबह नीतीश से खफा होते हैं, शाम तक नीतीश के बदले किसी ऐसे व्यक्ति के खिलाफ आक्रोशित होना होता है जो नीतीश कुमार से ज्यादा ‘व्यूज’ या ‘क्लिक’ दे सके, जो ज्यादा उत्पाती हो!
तो भईया, उत्पाती तो राजनीती के इस कालखंड में जितने मैदान में हैं, शायद ही कभी रहे होंगे। केजरीवाल, चन्नी, हरीश रावत और साक्षात दो भाई बहन- एक राहुल गाँधी और एक इंदिरा की नाक! आप अपना देखिए, रीच किस से ज्यादा आती है।