बुर्के में रहने दो, बुरका न हटाओ
बुरका जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा.. बूम!
हिज़ाब, नकाब, कबाब, शबाब क्या क्या है
बच्चे स्कूल आ चुके हैं, बता इंतेज़ाम क्या क्या है?
इन पंक्तियों में कवि ने किताब को कोई जगह नहीं दी है, क्योंकि आजकल स्कूल कॉलेजों में इनकी कोई जरूरत भी नहीं है। आजकल अगर स्कूल-कॉलेज में कुछ आवशयक है, तो वह है बुर्का (Burqa)। ये मजहबी जहर इन बच्चों के दिमाग में वो लोग डाल रहे हैं, जो खुद रोज पब और बार में मिनी स्कर्ट पहनकर दीनपरस्ती का खुला मजाक बनाती हैं और कोरोना के नाम पर फंड जुटाकर अपने ही मजहब के लोगों को करीब दो करोड़ का चुना लगाती हैं।
कर्नाटक में आजकल बुर्के का बवाल उठा हुआ है। कर्नाटक हाईकोर्ट हिजाब प्रतिबंध के खिलाफ याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है और उसने राज्य सरकार से शैक्षणिक संस्थानों को फिर से खोलने का अनुरोध किया है। इसके अलावा कोर्ट ने छात्रों को कक्षा के भीतर भगवा शॉल, स्कार्फ, हिजाब और किसी भी धार्मिक ध्वज को पहनने से भी रोक दिया है।
इस विषय पर विस्तृत वीडियो आप हमारे यूट्यूब चैनल Pahadi Panda पर देख सकते हैं–
पूरे कर्नाटक में कई शैक्षणिक संस्थानों और कॉलेजों में ‘हिजाब’ पहनने के विरोध में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन तेज हो गए हैं। कुछ जगहों पर विरोध प्रदर्शनों ने हिंसक रूप ले लिया, जिसके बाद कर्नाटक सरकार ने शैक्षणिक संस्थानों के लिए तीन दिन की छुट्टी घोषित कर दी।
इस बीच, कॉलेजों में हिजाब पर प्रतिबंध को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अंतिम आदेश तक छात्रों के लिए किसी भी धार्मिक (कहे जाने वाले) प्रतीक की अनुमति नहीं है।
ये हंगामा तब शुरू हुआ जब कुछ मुस्लिम छात्राओं को बुर्का पहनने के कारण कर्नाटक के एक कॉलेज की क्लास में प्रवेश से रोक दिया गया। स्कूल को मदरसा में तब्दील करने की इस कोशिश के जवाब में कुछ छात्र भगवा मफलर पहनकर कॉलेज आ गए और भगवा दिखते ही शुरू हो गया विक्टिम कार्ड। ये विवाद राज्य के विभिन्न हिस्सों में फैल गया है और अन्य समुदाय के छात्रों ने भी भगवा शॉल पहनकर कॉलेज जाने लगे।
तुरन्त इस मामले में नोबेल पुरस्कार वाली मलाला उतर आई और उसने ट्वीट कर लोगों को बताया कि देखो जी भारत में मुस्लिम छात्राओं के साथ ये हो रहा है। अब होने को तो मलाला के इस ट्वीट के पीछे कोई अब्दुल ही होगा लेकिन मलाला के भीतर छुपा ये अब्दुल उस वक्त क्यों नहीं बाहर आया जब तालिबान अफगानिस्तान में महिलाओं और बच्चों तक को निशाना बना रहा था।
मजेदार बात ये है कि ये वही मलाला है जो बुर्के पर कुछ साल पहले जमकर ज्ञान दे चुकी है। मलाला बुर्के की तुलना ओवन या भट्टी से कर चुकी है, लेकिन क्योंकि मामला दक्षिणपंथी सत्ता के विरोध का है तो अब ये वोकिज़्म बहुत जरुरी हो गया था। आप भारत के ही ‘प्रगतिशील राज्यों’ में बुर्के को ले कर हुए विवादों पर नजर डालिए, क्या आपने इनके बारे में सुना भी होगा? केरल में बुर्के को ले कर विवाद हुआ, तब किसी ने नहीं कहा कि माय लाइफ, माय बुरका!
आप राज्य छोड़िए, बाकी देशों ने बुर्के पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाया हुआ है और कट्टरपंथ का दमन कर रहे हैं। चीन, फ़्रांस, स्विट्जरलैंड, बेल्जियम, स्वीडन, नॉर्वे, जर्मनी, श्रीलंका इन सभी देशों में बुर्के पर सख्त पाबंदी लगाई गई, लेकिन मलाला ने कभी आवाज नहीं उठाई। वो नॉर्वे तक बुर्के को बैन कर चुका है, जिसने मलाला को नोबेल प्राइज़ दिया था। तो आप समझिए कि ये विरोध किसी मानसिकता का नहीं बल्कि एक पूरी सभ्यता के खिलाफ होता है।
चीन में उइगरों के साथ क्या नहीं किया जा रहा है, लेकिन मलाला को इस बात से आपत्ति है कि भारत का कोई कॉलेज अपने छात्रों को कट्टरपंथ से दूर रहने की सीख देता है। और सीख भी क्या मतलब है, ये एक स्कूल कॉलेज है, जिसके अपने प्रोटोकॉल हैं। आप इस से सहमत नहीं हैं तो अपने मदरसे में जा के पढ़िए, स्कूल तो शरियत लागू करने से रहे। और भारत के मदरसों में भी अगर आपको ‘प्रो मैक्स’ शरियत नहीं मिलती तो उधर तालिबान बैठा है, वो दे रहा है शरियत घोल के शरीर में जगह जगह। वहाँ जाने को आप स्वतंत्र हैं। खासकर महिलाओं के सम्मान में तो वो हमेशा खड़े ही मिले हैं अपने अपने हथियार हाथ में लिए हुए।
अब सुनने में आ रहा है कि JNU के ढपलीबाज भी कह रहे हैं कि भाई स्कूल या कॉलेज में बुरका ‘अलाऊ’ किया जाना चाहिए। ये वो लोग हैं जो जब मंदिर की बात करो तब इन्हें स्कूल चाहिए थे, अब स्कूल की बात कर रहे हैं तो इन्हें बुरका चाहिए। जब इतने प्रगतिशील लोग भी महिलाओं को बुर्के में रखने को ही प्रगतिशीलता बताने लगें तो आप समझ जाइए कि ये भारत को कहाँ ले जाना चाह रहे हैं।
कर्नाटक में बुर्के पर विवाद होते ही अब देश के बाकि हिस्सों में भी मजहबी छात्राओं को बुर्के से मोहब्बत हो गई है। इसके तुरंत बाद उत्तर प्रदेश के जौनपुर में एक छात्रा ने क्रांति छेड़ दी है कि उसे तो बुर्का पहनना ही पहनना है।
यानी कर्नाटक से चली हुई ये बुरका क्रांति अब उत्तर प्रदेश से होते हुए किसी भी दिन दिल्ली में शाहीनबाग़ में तब्दील हो जाएगी और आखिर में ये मुद्दा हिन्दू विरोधी नारों और फिर भारत विरोधी साजिशों के रास्ते दिल्ली दंगों में तब्दील हो ही जाएगा।
सड़कों पर खुले में पोस्टर लगे हुए हैं- पहले हिजाब, फिर किताब! ऐसा ही एक कॉन्सेप्ट उत्तराखंड में हरीश रावत ले कर के आए ही हैं मुस्लिम यूनिवर्सिटी का। धीरे धीरे कर के ये लोग सैपरेट इलेक्टोरल की माँग भी करने ही लगेंगे।
आप आजादी से पहले के ‘मार्ले-मिंटो सुधार’ जिसे नाम दिया गया, उसे याद करिए। जब हमारे प्रगतिशील सेकुलर और कुछ इंटरनेट हिन्दू प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘मौलाना मोदी’ कहते हुए बीजेपी को वोट न देने के वीडियो बनाते हैं, उसी समय एक बड़ा वर्ग, जिसमें ढपलीबाज, वामी-इस्लामी, सेक्युलर आदि आदि शामिल हैं, मिल-जुलकर साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली की ओर देश को झोंक रहे हैं।
मार्ले मिंटो सुधारों का मूल उद्देश्य राष्ट्रवादी गुटों में फूट डालना था और इंटरनेट पर हिन्दू बनकर रीच पाने वाले लोगों का उद्देश्य भी इस से कुछ भी अलग नहीं है। ‘JNUछाप ढपलीबाजों’ की तो बात ही करना बेकार है क्योंकि वो कम से काम खुलकर तो अपना अजेंडा भारत और हिन्दू-विरोध बताते हैं।
उधर वो दो भाई बहन हैं। अगर यूनेस्को आज ही मूर्खता का कोई पुरस्कार घोषित कर दे तो इन दोनों भाई-बहनों में आज ही सर फुटव्वल हो जाए फस्ट आने के लिए। होड़ मची होती। विवाद चल रहा है बुर्के का और ईन्दिरा की नाक ट्विटर पे लिखती है कि आप लोगों को बिकिनी पहनने से नहीं रोक सकते।
वो दो दिन पहले जो अपने पिद्दियों से कह रहा था कि सिद्धू का काट के देखो, वो उसके ट्वीट के नीचे अपना समर्थन देने वाला अँगूठा बना रहा है। अरे रुको भाई, ठहरो जरा। ये स्कूल की बात हो रही है किसी स्विमिंग पूल की नहीं। और वो स्कूल करण जौहर की फिल्मों में होते हैं जहाँ स्टूडेंट्स बिकिनी पहन के लोगों को प्यार मोहब्बत में पड़ना सिखाते हैं, असल के स्कूलों में बच्चे पढ़ने ही जाते हैं, जब तक उस स्कूल का नाम मदरसा न हो।
स्कूलों का एक नियम कानून होता है। आर्मी या पुलिस का एक कोड होता है, वहाँ आप दाढ़ी नहीं रख सकते। तो ये नियम आप नहीं तय करेंगे कि स्कूल, सेना या संस्थान किस तरह से चलें। और हर जगह शरियत ही चाहिए, तो आप जानते हैं कि आपको ये बिना उत्तेजित हुए कहाँ मिल सकती है।
मदरसे की ख़बरें तो हम और आप रोज देखते ही हैं कि कभी कोई मौलवी किसी बच्चे या बच्ची का रेप कर रहा होता है पानी पिलाने के बहाने तो कभी उन्हें बंधक बना के दीनी तालीम के लिए मजबूर करते हैं। ये मौलवी तो लड़के और लड़कियों में भी भेदभाव नहीं करते हैं।
कुछ असहिष्णु किस्म के लोग तो ये भी कह रहे हैं कि इनका बुर्का पहनना इसलिए भी जरूरी होता है क्योंकि ये जानते हैं कि जब इनकी महिलाएँ और बच्चे घरों में घर के लोगों से ही सुरक्षित नहीं हैं तो फिर दुनिया में इनका क्या ही होगा। खुद के घर में कांड किए हुए लोग हैं, वो कहेंगे ही।
बुर्का, अख़लाक़, या 2017 में उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले की अवार्ड-वापसी हो, ये सब भाजपा या कहिए कि हिंदूवादी लोगों को सत्ता से दूर रहने के प्रयोग हैं। इस बार कर्नाटक से शुरू हुए इस विवाद में अच्छी पहल समुदाय के लोगों ने ये की है की लखनऊ में कुछ मौलवी इस मामले में मीटिंग कर रहे हैं और किसी समाधान पर चर्चा कर रहे हैं क्योंकि किताब में तो हिजाब और महिला को तिजोरी और चाभी जैसी तुलनाओं से भरा गया है।
आखिर में इस सब किस्सों का अंतिम उद्देश्य मिला जुलाकर लोगों को भड़का कर इस आक्रोश को वोट में तब्दील करना ही है। आज हिजाब के लिए दंगा कर रहे हैं, कल हिंदी की जगह हदीस के लिए लड़ेंगे, परसों कुरान को सिलेबस में जोड़ने के लिए लड़ेंगे, ये सिलसिला चलता रहेगा और तब तक चलेगा जब तक सेपरेट इलेक्टोरेट तक नहीं पहुँच जाते। इस तरह से शाहीनबाग़ बनेंगे, गाजीपुर और सिंघु बनेंगे, ऐसा कर कर के गुजरात चुनाव आएगा, और फिर आप जानते हैं कि किस ओर जा कर ये सभी समीकरण बैठ जाएँगे।
ये तय ऐसे में आपको और हमें करना है कि आखिर इस बवाल को किस तरह से निपटा जा सकता है। एक हाथ कुरान, एक हाथ कंप्यूटर का नारा दोनों हाथों में कुरान से बेहतर ही है। चूँकि इनके तमाम उपद्रवों के दोनों छोर एक चुनाव से शुरू हो कर दूस्र्रे चुनाव तक ही पहुँचते हैं, इसलिए हमें भी आवश्यक रूप से चुनाव के समय ही इस आक्रोश के अनुसार ही अपने वोटिंग पैटर्न तय करने होंगे। इनमें से भी आपको और हमें ही तय करना होगा कि हमें कुरान को वोट करना है या फिर किताब को।