बाबा साहेब डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर द्वारा की गईं हिन्दू धर्म की आलोचनात्मक टीकाओं को खूब उभारा जाता है, इसके पीछे की मंशा ठीक नहीं होती। बाबा साहेब ने हिन्दू धर्म में व्याप्त जातिप्रथा, जातिगत भेदभाव और उसके लिए जिम्मेदार प्रसंगों की आलोचना की, उसके मानवीय कारण हैं। उनकी आलोचनाओं को हिन्दू समाज ने स्वीकार भी किया क्योंकि उन आलोचनाओं के पीछे पवित्र नीयत थी।
किन्तु जो लोग हिन्दू धर्म को लक्षित करके नुकसान पहुँचाने के लिए बाबा साहेब के कंधों का दुरुपयोग करने का प्रयत्न करते हैं, वे भूल जाते हैं कि बाबा साहेब ने सिर्फ हिन्दू धर्म की कमियों की ही आलोचना नहीं की, बल्कि उन्होंने ईसाई और इस्लाम संप्रदाय को भी उसके दोषों के लिए कठघरे में खड़ा किया है। ‘बहिष्कृत भारत’ में 1 जुलाई, 1927 को लिखे अपने लेख ‘दु:ख में सुख’ में बाबा साहेब लिखते हैं-
इस्लाम पर तो बाबा साहेब ने खूब कलम चलाई है। परंतु यहाँ तथाकथित प्रगतिशील बौद्धिक जगत एवं अन्य लोगों की बौद्धिक चालाकी उजागर हो जाती है, जब वे इस्लाम के संबंध में बाबा साहेब के विचारों पर या तो चुप्पी साध जाते हैं या फिर उन विचारों पर पर्दा डालने का असफल प्रयास करते हैं। आज बाबा साहेब होते तो वे निश्चित ही ‘भीम-मीम’ का खोखला, झूठा और भ्रामक नारा देने वालों को आड़े हाथों लेते।
इस्लाम के विषय पर बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर का गहरा अध्ययन था। दरअसल, उन्होंने जब हिन्दू धर्म छोडऩे की घोषणा की तो उसके बाद उन्होंने सिख, इस्लाम, ईसाई और बौद्ध धर्म का बहुत अध्ययन किया। जब तक उन्होंने इस्लाम का अध्ययन नहीं किया था, तब तक अवश्य ही उन्होंने एक-दो बार हिन्दुओं को चेतावनी देने के लिए कहा कि अस्पृश्य वर्ग के लोग इस्लाम स्वीकार करें, तो यही सवर्ण हिन्दू उन्हें गले लगाने लग जाएंगे।
‘बहिष्कृत भारत’ के 15 मार्च, 1929 के अंक में तो उन्होंने एक लेख ही लिख दिया था, जिसमें उन्होंने अस्पृश्य वर्ग को कह दिया कि यदि हिन्दू धर्म में रहते हुए आपको सम्मान एवं समान अधिकार नहीं मिल रहे और आपको धर्म परिवर्तन ही करना हो तो मुसलमान हो जाईए। परंतु जैसे-जैसे बाबा साहेब इस्लाम का अध्ययन करते गए, इस्लाम के प्रति उनकी दृष्टि बदल गई।
उसके बाद उन्होंने अस्पृश्य वर्ग के बंधुओं को समझाना शुरू किया कि मुसलमान बनने पर हम भारतीयता की परिधि से बाहर चले जाएंगे, हमारी राष्ट्रीयता संदिग्ध हो जाएगी। इसके साथ ही बाबा साहेब यह भी मानते थे कि “यदि वे इस्लाम स्वीकार करते हैं तो मुसलमानों की संख्या इस देश में दूनी हो जाएगी और मुस्लिम प्रभुत्व का खतरा उत्पन्न हो जाएगा”।
अर्थात् बाबा साहेब मुसलमानों की बढ़ती संख्या को देश के लिए संकट के तौर देखते थे। इसलिए बाबा साहेब ने न केवल समय-समय पर इस्लाम की आलोचना की है, बल्कि अल्पसंख्यक के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण करने के सभी प्रकार के प्रयासों का भी विरोध किया है।
18 जनवरी, 1929 को ‘नेहरू कमेटी की योजना और हिन्दुस्थान का भविष्य’ इस शीर्षक से उनका एक अग्रलेख ‘बहिष्कृत भारत’ में प्रकाशित हुआ है। कांग्रेस के अग्रणी नेता मोतीलाल नेहरू ने भारत के भावी संविधान का एक मसौदा प्रस्तुत किया। कांग्रेस के प्रचार तंत्र के जरिये जोर-शोर से यह बताया जा रहा था कि नेहरू कमेटी समिति का यह मसौदा कितना अच्छा है। जबकि बाबा साहेब ने इस मसौदे की विवेचना करके बताया कि नेहरू समिति की योजना देश के लिए घातक है। बाबा साहेब लिखते हैं –
उन्होंने स्पष्ट संकेत किया है कि जब मुस्लिम देश भारत पर हमला करेंगे तो एकजुटता से उसका सामना नहीं किया जाएगा। मुस्लिम राष्ट्रों के हमलों के विरुद्ध कौन खड़ा नहीं होगा, तो उनका संकेत मुस्लिम समुदाय की ओर था। बाबा साहेब की यह अनुभूति इसलिए आई होगी क्योंकि भारत का बहुसंख्यक मुसलमान आज भी भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रांताओं को अपना नायक मानता है। यदि इसी बात को बाबा साहेब के नाम का उल्लेखन न करते हुए लिखा जाए, तो इसे किसी ‘हिन्दूवादी’ नेता के विचार ठहराया जाएगा। इस लेख के अंत में बाबा साहेब लिखते हैं-
‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ मुसलमानों के विषय में बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर की एक महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस ग्रंथ में उन्होंने कहा है कि –
मुसलमानों के संदर्भ में बाबा साहेब के इन विचारों ने ही उन्हें सदैव मुसलमानों से राजनीतिक समझौते और धर्म के रूप में इस्लाम स्वीकारने से रोका । इसी पुस्तक में बाबा साहेब ने प्रमाणों एवं तथ्यों के आधार पर सिद्ध किया है कि मुस्लिम आक्रांतों ने सिर्फ वैभव सम्पन्नता को लूटने के लिए भारत पर आक्रमण नहीं किए थे, बल्कि उसके पीछे जेहादी मानसिकता काम कर रही थी। बाबा साहेब लिखते हैं कि –
मुस्लिम समुदाय क्यों अन्य समुदायों के साथ घुल-मिल नहीं पाता, उसका कारण स्पष्ट करते हुए बाबा साहेब ने लिखते हैं कि इस्लाम एक क्लोज कॉर्पोरेशन है और इसकी विशेषता ही यह है कि मुस्लिम और गैर मुस्लिम के बीच वास्तविक भेद करता है। इस्लाम का बंधुत्व मानवता का सार्वभौम बंधुत्व नहीं है। यह बंधुत्व केवल मुसलमान का मुसलमान के प्रति है। दूसरे शब्दों में इस्लाम कभी एक सच्चे मुसलमान को ऐसी अनुमति नहीं देगा कि आप भारत को अपनी मातृभूमि मानो और किसी हिन्दू को अपना आत्मीय बंधु। वे लिखते हैं –
जब धर्म के आधार पर भारत का विभाजन सुनिश्चित हो गया, तब बाबा साहेब ने पूर्ण जनसंख्या अदला-बदली की बात कही। वे अपने अध्ययन एवं अनुभव के आधार पर यह स्पष्ट देख पा रहे थे कि यदि जनसंख्या की अदला-बदली नहीं की गई, तो भविष्य के भारत में फिर किसी ‘नये पाकिस्तान’ की मांग उठेगी। यह बात तो सबके ध्यान में ही है कि पाकिस्तान के निर्माण के बाद मुस्लिम नेताओं की ओर से खुलकर कहा गया- ‘लड़कर लिया है पाकिस्तान, हंसकर लेंगे हिंदुस्तान’। विभाजन के समय बाबा साहेब ने लिखा-
उनका कहा आज के भारत में कड़वे सच के रूप में उपस्थित है। इस्लाम के संबंध में बाबा साहेब के विचारों की एक कल्पना उपरोक्त चर्चा से मिलती है। इस्लाम के संबंध में बाबा साहेब ने गहराई से अध्ययन किया और उसे अपने लेखन में प्रस्तुत किया। उन्होंने इतिहास से दृष्टि प्राप्त कर इस्लामिक मानसिकता के वर्तमान एवं भविष्य की एक तस्वीर बनाने का जतन बाबा साहेब ने किया है। एक तरह से उन्होंने भारतीय मुसलमानों को आईना भी दिखाया और उन्हें उनकी कमजोरियां एवं गलत धारणाएं भी बताईं। हिन्दू समाज ने तो बाबा साहेब के विचारों को स्वीकार करते हुए उनके बताए अनेक सुधारों को स्वीकार कर लिया, अब देखना यह है कि मुसलमान कब बाबा साहेब की बातों पर चिंतन एवं उस पर क्रियान्वयन करते हैं।