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उत्तराखंड संस्कृति

फूलदेई: प्रकृति और जीवन के उत्सव का लोकपर्व

एक घर से दूसरे घर, एक देहरी से दूसरी देहरी जाते और वही फूलदेई, छम्मा देई बोलते, जैसे ही चावल मिलते टोली आगे बढ़ जाती। एक घर से दूसरे घर या एक बाखली से दूसरी बाखली जाते हुए।
दी लाटा न्यूजBy दी लाटा न्यूज16/03/2022
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फूलदेई
चैत्र मास के प्रथम दिन से मनाया जाने वाला पर्वतीय अंचल का लोकपर्व फूलदेई!

पहाड़ों की रौनक उसके जीवन में है। पहाड़ों का जीवन उसके आस-पास प्रकृति में बसा है। हर ऋतु में पहाड़ों की रौनक, मिज़ाज, खिलखिलाहट अद्भुत एवं रमणीय होती है। इसी में पहाड़ का जीवन, सुख- दुःख और हर्षोउल्लास सब समाया होता है।

जीवन का उत्सव प्रकृति का उत्सव है और प्रकृति, जीवन का अविभाज्य अंग। इसलिए पहाड़ी जीवन के रंग में प्रकृति का रंग घुला होता है। बिना प्रकृति के न जीवन है न कोई उत्सव और त्यौहार।

पहाड़ों में लंबी सर्दी और बर्फबारी के बाद वसंत के आगमन का संकेत पहाड़ों पर खिलने वाले लाल, हरे, पीले, सफेद,और बैंगनी फूलों से मिल जाता है। अब तक बर्फ की सफेद चादर से ढके पहाड़ों और पेड़ों पर रंगों की रंगत किस्म- किस्म के फूलों से आ जाती है। यह जीवन और प्रकृति का विहंगम दृश्य है।

इस क्षण, समय, और दृश्य का पहाड़ के जीवन में बड़ा महत्व है। वह प्रकृति के इस उत्सव में स्वयं को शरीक करते हैं या पाते हैं। पहाड़ों और पेड़ों पर आकार ले चुके फूलों के उत्सव और वसंत के आगमन का स्वागत करने वाला त्यौहार है- फूलदेई। आज वही फूलदेई है। फूलदेई मतलब देहरी पर फूल चढ़ाना।

बचपन पहाड़ में बीता, जवानी शहर में। यह फँसना मेरा ही नहीं, पहाड़ के कमोबेश सभी लोगों का है। अब बचपन छूटा तो वो बचपना, मस्ती, त्यौहार की उत्सुकता और रौनक भी गुम हो गई। शहर कभी हमारी चॉइस नहीं बल्कि मजबूरी ही रहे।

शहरों ने गाँव छीना, बचपना छीना, फूल छीने, फूलदेई की टोकरी छीनी, ईजा के हाथों के ‘दौड़ लघड़’ (पूरी) छीने, अम्मा के हाथों की लापसी छीनी, ज्येठी, काकी, अम्मा, बुबू के हाथों के गुड़ और चावल भी छीन लिए। इन सबके साथ प्रकृति के रंग और रौनक को भी छीन लिया।

इन सब की कीमत पर शहर ने जो दिया वह अस्थाई संतोष और पहाड़ों की स्मृतियाँ। पहाड़ और शहर के लेन-देन पर फिर कभी आज तो बचपन की शान और रौनक के त्यौहार फूलदेई पर बात करते हैं।

फूलदेई त्यौहार की रौनक कुछ ऐसे आरंभ होती थी-

एक दिन पहले से ही हम बुराँश, फ्योंली, रातरानी, गेंदा, चमेली, मेहंदी, के फूल लाकर उन्हें टोकरी में सजा देते थे। टोकरी में थोड़ा चावल, 1 रुपया और किस्म-किस्म के फूल होते थे।

छोटी, गहरी और फूलों से सजी टोकरी को लेकर फूलदेई के दिन सुबह-सुबह गाँव नापने निकल पड़ते थे। एक से दो, दो से चार ऐसे सब बच्चे इकट्ठा हो जाते थे। धीरे-धीरे वह एक पूरी टोली बन जाती थी।

हर कोई अपनी टोकरी और फूलों पर इतरा रहा होता था। एक दूसरे की टोकरी देखने की उत्सुकता भी रहती थी। बस फिर क्या, टोली गाँव के घर- घर, द्वार- द्वार जाती, देहरी पर थोड़ा फूल डालते और कहते-

फूल देई, छम्मा देई,
जातुका देई ओतुका सही
हमर टुकर भरी जो
तूमर भकार भरी जो।

इसे सभी एक लय के साथ बोलते और बोलते ही रहते जब तक कि चाची, अम्मा, ज्येठी जो भी घर में हो वो आकर हमारी टोकरियों में चावल न डाल दें। इस तरह एक घर से दूसरे घर, एक देहरी से दूसरी देहरी जाते और वही फूलदेई, छम्मा देई बोलते, जैसे ही चावल मिलते टोली आगे बढ़ जाती। एक घर से दूसरे घर या एक बाखली से दूसरी बाखली जाते हुए। सब आपस में बात भी करते कि किसको कितना मिला और किसकी टोकरी ज्यादा भरी है। जिसको कम चावल मिलते या जिसके फूल कम हो जाते उसे रास्ते भर चिढ़ाते थे।

पूरा दिन यही मस्ती करते घर लौटते तो गर्व के साथ अपनी टोकरी, ईजा और अम्मा को दिखाते और बताते भी कि उसकी अम्मा या ईजा ने इतना दिया और यह कह रहीं थीं। उसने इतना कम दिया या उसने ज्यादा। यह बताते हुए चेहरा रोमांच और उत्सुकता से भरा रहता था।

जब टोकरी सजाई जाती थी तो उसमें घर में आए हर नए सदस्य की टोकरी भी लगती थी। उसे भी पूरे गाँव में घुमाया जाता था। नए सदस्य की टोकरी में अमूमन लोग ज्यादा चावल और कुछ पैसे रखते थे। एक तरह से गाँव के साथ प्रकृति के माध्यम से यह नए सदस्य का परिचय होता था। उसको ज्यादा चावल देना गाँव के लोगों द्वारा नए सदस्य का खुशी के साथ स्वागत करना था।

गाँव में फूल खेलने के बाद घर आते तो ईजा के हाथ के दौड़ लघड़, भुड़, आज के दिन स्पेशल बनने वाले खज (चावलों को तेल में फ्राई कर के बनते हैं) मिलते थे। ईजा सबसे पहले को-बाय (कौऐ के लिए) निकालती थी, फिर गो- ग्रास (गाय के लिए) उसके बाद हम लोगों का नंबर आता था। अपनी टोकरी को देखते और खाने में ही पूरा दिन बीत जाता।

इससे एक अलग तरह का उत्सव, सुख, संतुष्टि मिलती थी जो शब्दों से परे अनुभव की चीज है। अब वह बस स्मृतियों में शेष है। आज शहर के 2BHK में कैद जब यह सब लिख रहा हूँ तो वह बचपन अंदर ही अंदर कहीं जी रहा हूँ, जो शहर में कहीं खो गया है।

मनुष्य पुल बना सकता है लेकिन नदी नहीं बना सकता है। मनुष्य जहाज बना सकता है लेकिन संमदर नहीं। इसलिए अभी तक मनुष्य ने जो किया उसके मुकाबले प्रकृति ने जो दिया उसका ही बहुत कुछ हमारे पास है। देखो कब तक!

उत्तराखंड के लोकपर्व ‘फूलदेई’ पर यह लेख ‘हिमान्तर मैगज़ीन’ के संपादक प्रकाश उप्रेती द्वारा लिखा गया है।

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