उत्तराखंड में एक कहावत है कि ‘भीतर का पिंडालू भैर बेची अर भैर का पिंडालू डेफर थेची। इस कहावत का अर्थ है कि खाने वाली अरबी, जिसे कि पहाड़ों में पिंडालू कहा जाता है, घर की अरबी बाहर बाजार में बेच दी और फिर बाहर से जो खरीद के घर लाए वो अपने शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों में बो दी।

उत्तराखंड में कुछ ही दिन में चुनाव होने वाले हैं, चुनाव के नतीजे अभी तक तो अस्पष्ट लग रहे थे लेकिन पिछली बार दो दो विधानसभा सीटों से हारने में कामयाब रहने वाले पूर्व मुख्यमंत्री हरदा उर्फ़ हारदा ने इस गेम को अब इकतरफा कर दिया है। जिस तरह से देशभर में कॉन्ग्रेस की मिट्टी पलित कॉन्ग्रेस नेता राहुल गाँधी करते आ रहे हैं अब ‘हारदा’ ने भी वही राह पकड़ ली है।

हरीश रावत ने घोषणा की है कि अगर कॉन्ग्रेस सत्ता में आती है तो वो देवभूमि कहे जाने वाले उत्तराखंड राज्य में मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना करेंगे। एक तरफ से दिल्ली को हिन्दू विरोधी दंगों में झोंकने वाली ताहिर हुसैनवादी आम आदमी पार्टी और दूसरी तरफ से हुर्रियत वाली कॉन्ग्रेस, इन सबने मिलकर देवभूमि को चारों ओर से घेरने की पूरी प्लानिंग कर ली है।

मुस्लिम यूनिवर्सिटी खोलने के पीछे क्या खेला कॉन्ग्रेस ने खेला है उसके बारे में जरा सा जान लेते हैं। हुआ ये कि देश के बाकी राज्यों की तरह ही उत्तराखंड में भी कॉन्ग्रेस पतनोन्मुखी हो रखी है। पार्टी के भीतर जमकर सर फुटव्वल चल रही है और इसी क्रम में हरीश रावत ने दिल्ली में रो-धो कर किसी तरह खुद को कॉन्ग्रेस की ओर से CM का चेहरा बताया।

हरीश रावत सीएम रहते 2017 विधानसभा चुनाव के दौरान हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा, दोनों सीट से चुनाव हार गए थे। हुआ ये कि हरीश रावत को जिस जिस जगह से टिकट दिया गया, वहाँ कभी उनके चेले कहे जाने वाले कॉन्ग्रेसी नेताओं ने भी उनके खिलाफ बगावत कर दी।

कॉन्ग्रेस नेता रणजीत रावत ने ये भी आरोप लगाए कि हरीश रावत टोन-टोटके करते हैं। हरीश रावत ने फिर दिल्ली शिकायत लगाईं और उन्हें किसी तरह आखिरकार लालकुआँ सीट से कॉन्ग्रेस ने टिकट दे दिया।

यहाँ भी उनके खिलाफ पार्टी नेता और समर्थक जम कर विरोध दर्ज कर रहे हैं। कुछ तो उनकी उम्र का लिहाज कर रहे हैं और कुछ उनकी हार के सिलसिले में खलल नहीं डालना चाहते। हरीश रावत ‘लड़की हूँ लड़ सकती हूँ’ वाले कॉन्ग्रेसी कैम्पेन को लाल पानी के साथ पी गए और वहाँ से जो कॉन्ग्रेस की महिला उम्मीदवार संध्या डालाकोटि थीं, उन्होंने शिकायत की है कि हरीश रावत के द्वारा उन्हें डराने-धमकाने का प्रयास किया जा रहा है।

ऐसे ही एक और बागी नेता अकील अहमद ने को हरीश रावत ने ये कहकर शांत किया कि वो सत्ता में लौटते ही मुसिम यूनिवर्सिटी खोलेंगे। और इसके बाद सहसपुर निर्वाचन क्षेत्र से अकिल अहमद ने अपना नामांकन वापस ले लिया।

अब ये तो थी बात अकील अहमद की। उनका तो नाम ही ऐसा है कि उनसे शिकायत भी क्या करनी, लेकिन नेहरू के नमक में डूबे कुछ लोग जब ‘उत्तराखंडियत’ की बात करते हैं तो हम जानते हैं कि उनकी जुबान में उत्तराखंडियत और दिलों में हुर्रियत बसती है।

पहले से ही रोहिंग्या और बांग्लादेशियों को बसाने के जिस हरीश रावत पर आरोप लगे हैं, वो जब देवभूमि में मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाने की बात करते हैं तब हमारे कान खुद ही खड़े हो जाने चाहिए। क्योंकि ये सिर्फ एक यूनिवर्सिटी नहीं बल्कि आने वाली सभी पीढ़ियों के लिए एक नया जख्म तैयार कर रहे होते हैं और वो सिर्फ इसलिए ताकि कॉन्ग्रेस की कम से कम एक विधानसभा सीट निकल आए।

ये सब बातें अब तक ओवैसी या फिर यूपी का कोई मौलाना ही करता था लेकिन अब उत्तराखंड में भी ये तुष्टिकरण का जरिया बन रहा है। हरीश रावत उत्तराखंड के सर सैय्यद अहमद खान बनने का ख्वाब पाल रहे हैं और उन्हें इसमें शर्म भी नहीं आनी चाहिए क्योंकि जब वो मुख्यमंत्री थे तब वो उत्तराखंड में जुमे की नमाज की छुट्टी घोषित कर रहे थे। आज वो अपने इस फैसले से एकदम मुकर रहे हैं और कह रहे हैं कि उन्होंने तो ऐसा कोई आदेश दिया ही नहीं था। अगर कोई इसका सबूत ले आए तो वो राजनीति त्याग दें, अब जब नमाज की छुट्टी वाले आदेश की कॉपी कुछ असहिष्णु संघी लोग ले कर आए हैं तो हरीश रावत जवाब ही नहीं दे रहे। हो सकता है कही चादर चढ़ाने निकल गए हों।

अगर देश के सेक्युलर फैब्रिक के लिए ये यूनिवर्सिटी बनानी इतनी ही जरुरी है तो फिर हरदा से हमारी एक और विनती है कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाने के साथ साथ वो किसी खतने वाले को भी इसका टेंडर दे दें और गाइडलाइन्स भी जारी कर दें कि इस यूनिवर्सिटी में प्रवेश लेने के लिए सबसे पहले देवभूमि के अभ्यर्थियों को अपना खतना करना ही होगा और छात्रों को अपने दाएँ हाथ पर ‘K2O’ भी गुदवाना पड़ेगा।

देवभूमि कहे जाने वाले इस राज्य में अगर मुस्लिम यूनिवर्सिटी चुनावी वादे होने लगें तो आप आज से पाँच साल बाद का सोचिए कि यहाँ क्या होने वाला है। आप याद करिए कि वर्ष 2007 में जब भारत ने टी-ट्वंटी विश्वकप जीता था तो देहरादून के घंटाघर से ले कर इनामुल्लाह्ल बिल्डिंग तक किस तरह की झाँकी निकली थीं।

पत्थरबाजी पूरे देश में अब जा कर आम बात हुई हैं लेकिन देहरादून आज से तेरह-चौदह साल पहले ही इसका ट्रेलर देख चुका था, या शायद पहले भी हुआ हो और हम दार उल इस्लाम और दार उल हरब के खेल को तब इतने अच्छे से नहीं समझते थे। पुलवामा आतंकी हमले के वक्त कट्टरपंथियों के उकसावे की पहली हिंट पर ही देहरादून के कुछ कॉलेज के कश्मीरियत वाले ‘छात्र’ पत्थरबाज बन गए। नारेबाजी की गई और गिरफ्तारियाँ हुईं।

देश में एक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी कम है क्या जो जिन्ना की तस्वीरों की वजह से या फिर दंगों की वजह से चर्चा में रहती है? उस यूनिवर्सिटी की नींव सर सैयद अहमद खान ने रखी थी और अब उत्तराखंड में यहाँ ‘हर सैय्यद अहमद दा’ पैदा हो रहे हैं बुढापे में सीएम बनने के लिए।

हरीश रावत मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिए जिस मुस्लिम यूनिवर्सिटी के खेल को बेच रहे हैं वह पूरी तरह से दार उल इस्लाम की नींव रखता है। यानी इस्लाम का शासन। यह अजीब बात लगती है क्योंकि यह प्रदेश तो शांति और सौहार्द का है यहाँ हिन्दू-मुसलमान तो होना ही नहीं चाहिए, यही तो हम सब भी कह रहे हैं कि हरीश रावत को हिन्दू-मुसलमान में समाज को नहीं बाँटना चाहिए। उन्हें तो अकील अहमद से इस बात पर लड़ाई करनी चाहिए थी कि हिन्दू और मुस्लिमों को एक साथ एक ही यूनिवर्सिटी में पढ़ना चाहिए। वरना कल के दिन महान दार्शनिक आशीष नौटियाल जी माँग करने लगेंगे कि पहाड़ वालों के लिए अलग यूनिवर्सिटी और मैदान वालों के लिए अलग यूनिवर्सिटी बना दी जाए। उत्तराखंड के पहाड़ी या मैदानी हिस्सों के लोग ऐसी माँगे करें भी तब भी वह नाजायज नहीं मानी जा सकतीं, लेकिन साम्प्रदायिकता से सत्ता हासिल करने का यह कॉन्ग्रेसी फॉर्मूला इस पहाड़ी प्रदेश के हित में तो बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता।

तो अब हमें आखिर में ये सोचना है कि ऐसे समय में, जब हम अपने पहाड़ और देवभूमि में अवैध निर्माण या घुसपैठ से सुरक्षा के लिए सत्ता से भू कानून की माँग कर रहे हैं, क्या कॉन्ग्रेस को वोट दे कर हम देवभूमि के हितों की रक्षा कर रहे हैं?

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