मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने अपने एक व्यंग्य ‘दो नाक वाले लोग’ में लिखा था,
“जूते खा गए अजब मुहावरा है। जूते तो मारे जाते हैं। वो खाए कैसे जाते हैं? लेकिन भारतवासी इतना भुखमरा है कि वो जूते भी खा जाता है।”
हरिशंकर परसाई
कर्नाटक में सत्तारूढ़ BJP ने राज्य के तटीय क्षेत्र में हिंदू मंदिर परिसरों और धार्मिक मेलों में गैर-हिन्दू व्यापारियों के दुकान लगाने पर प्रतिबंध लगाने की बात कही है। इस पर विवाद बढ़ने के बाद कर्नाटक सरकार ने बुधवार (23 मार्च, 2022) को कुछ मंदिरों द्वारा धार्मिक त्योहारों के दौरान गैर-हिन्दू व्यापारियों पर प्रतिबंध लगाने के फैसले का बचाव भी किया।
एक कानून का हवाला देते हुए विधानसभा में तर्क दिया गया कि मेलों और पवित्र अवसरों के दौरान हिंदुओं के अलावा किसी अन्य व्यक्ति को मंदिर परिसर के अंदर जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
हिन्दुओं द्वारा अपने धार्मिक परिसरों के लिए संवैधानिक रूप से लिए गए एक फैसले ने भी ‘वाम-उदारवादियों’ को परेशान कर दिया है। ये वही वर्ग है जो शरिया जैसे कानून का जिक्र तक अपनी जुबान से नहीं करता। हलाला एवं तीन तलाक जैसी कुप्रथाओं के भी समर्थन में यह बौद्धिक वर्ग खड़ा रहा है।
इस प्रकरण से एक ऐसा किस्सा याद आया है जिसमें एक ‘मोमिन’ ने ‘काफिरों’ की शराब और पैसे को जायज बताया था। ये किस्सा भारतीय राजनयिकों के गलियारे में ख़ूब चर्चा में रहा है। ये किस्सा है 1990 का, जब पाकिस्तान के एक मशहूर ग़ज़ल गायक और उस दौरान इस्लामाबाद में नियुक्त एक भारतीय राजनयिक साथ में हवाई सफ़र कर रहे थे।
भारतीय राजनयिक इस ग़ज़ल गायक के फ़ैन तो थे ही, आस-पास ही बैठे होने के कारण बातचीत का माहौल भी बना हुआ था। ग़ज़ल गायक को लगा कि शायद ये पाकिस्तान के ही राजनयिक हैं और लगे हाथ वो भारत में होने वाले उनके दौरों पर बात करने लगे।
इसी माहौल में पाकिस्तानी फनकार ‘काफ़िर भारतीयों’ पर खूब बरस भी रहे थे। साथ ही, पाकिस्तानी फनकार ने कहा था कि एक ‘मोमिन’ होने के नाते वो भारत देश के काफ़िरों की सिर्फ शराब, शबाब और और पैसा पसंद करते हैं और इसमें उन्हें कोई परेशानी नहीं होती।
प्लेन से अपने हवाई सफ़र से उतरने के बाद जब राजनयिक ने उनसे बताया कि वो पाकिस्तानी नहीं बल्कि भारतीय राजनयिक हैं तो भारतीय शराब, शबाब और रुपए के शौक़ीन ग़ज़ल गायक ने फ़ौरन उनसे माफ़ी माँगी, गिड़गिड़ाए और इस नासमझी के लिए उनसे माफ़ी भी माँगी।
राजनयिक की सिफ़ारिश पर तत्कालीन भारत सरकार द्वारा इस ग़ज़ल गायक को कई वर्षों के लिए भारत में ‘ब्लैकलिस्ट’ कर दिया गया और ‘काफ़िरों’ के इस देश में परफॉर्म करने की अनुमति देने से मना कर दिया।
ये किस्सा शरहद पार के एक कलाकार का जरूर है, लेकिन ये वो हकीकत है जो एक ऐसी कौम की हकीकत है, जो हलाल और हराम के जिक्र किए बिना साँस भी नहीं लेती।
समाज में आर्थिक ढाँचे की अगर बात करें तो जब तक कोई समान ‘हलाल’ ना हो, यह कौम उसका बहिष्कार ही करती है। कोविड महामारी और इसके बाद वैक्सीन लगाने तक में इस विवाद ने खूब जोर पकड़ा।
वैक्सीन निर्माताओं को ‘हलाल सर्टिफाइड’ के प्रमाणपत्र जारी करने पड़े। यह जिक्र करना भी आवश्यक है कि हलाल प्रोडक्ट की पूरी श्रंखला में एक भी गैर मुस्लिम शामिल नहीं हो सकता। यानी अन्य धर्म के लोगों का पूर्ण आर्थिक बहिष्कार। वंचितों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले ‘बौद्धिक’ कभी हलाल अर्थव्यवस्था के खिलाफ मुखर होते नहीं देखे गए।
हालाँकि, हिन्दुओं के रीति-रिवाजों, शिक्षा पद्दति, अर्थव्यवस्था में एक सच्चे मोमिन को कोई समस्या नजर नहीं आती। माँस खाने में हलाल और पहनने में भी हलाल, लेकिन जब आर्थिक लाभ लेने की बात हो तब आपको हिन्दुओं का प्रतिशत भी संवैधानिक रूप से चाहिए होता है।
कर्नाटक में गैर-हिन्दुओं पर प्रतिबन्ध लगाने को लेकर नियम पुस्तिका का भी हवाला दिया गया है। विधानसभा में इस मुद्दे पर चर्चा के दौरान कर्नाटक के कानून मंत्री जेसी मधुस्वामी ने हिंदू धार्मिक संस्थान और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम और नियम (2002) का उल्लेख किया।
यह इस देश की धर्म निरपेक्षता की खूबसूरती ही है कि ‘ऑड दिनों’ में शरिया की बात करने वाले ‘ईवन दिनों’ में संविधान की बात करने लगे हैं। खूबसूरती ये भी है कि खुद की पहचान गाजी और बुतशिकन बताने वालों की नस्लों को आज भी हिन्दू मंदिरों से ही अपनी अर्थव्यवस्था का हल निकालना है। वरना बामियान में बुद्ध को गिराने वाले गाजियों को सभ्यता से क्या काम?