बीसवीं सदी में माओत्से तुंग ने चीन में पूरी ताकत से क्रूर शासन स्थापित किया और करोड़ों लोगों को मौत के घाट उतारा। रूस में लेनिन और बाद में जोसेफ़ स्टालिन ने वामपंथ के नाम पर भीषण नरसंहार किया। नए युवा और गंगा ढाबा में चालीस की अंडा-कड़ी प्लेट खाते हुए निकले ‘विमर्श’ की विष्ठा को सामाजिक चिंतन नाम देने वाले इसे उदारवाद नाम देते हैं।

प्रॉपगैंडा का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि अन्य किसी भी विचार के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया जाए या फिर किसी भी तरह से उसकी विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया जाए। ऋषि कश्यप के कश्मीर के साथ सदियों की नाइंसाफी को भी कुछ इसी तरह से नाकारा जाता रहा। इसे पलायन नाम दे कर भीषण नरसंहार और उसकी त्रासदी को ही छुपा दिया गया।

जर्मनी में होलोकास्ट (यहूदियों के नरसंहार) की घटना पर सवाल पूछना तक आपराधिक है लेकिन भारत में आजादी के बाद से ही सच्चाई के ऊपर सदैव ‘अल्पसंख्यकों’ की धर्मनिरपेक्षता को ही वरीयता मिली। ‘द कश्मीर फाइल्स’ (The Kashmir files) फिल्म के नाम से नामी लोग किनारा कर रहे हैं, सिनेमा हॉल में इसके पोस्टर इसलिए नहीं दिख रहे क्योंकि प्रगतिशील ऐसा कर के ‘इस्लामोफ़ोबिया’ को नहीं भड़काना चाहता। यानी जो बर्बरता करते और उसे छुपाते उन्हें शर्म नहीं आई, लेकिन आप और हम उस बात का जिक्रभर कर के भी असहिष्णु साबित हो जाते हैं।

हर बात पर किसी बड़े दार्शनिक, विचारक का नाम कोट कर देने और किसी न किसी अप्रासंगिक किताब का जिक्र कर डिबेट को ‘भारी’ बनाने की ‘चॉइस’ रखने वाले अकेले-पढ़े लिक्खे बौद्धिक कश्मीर पर किताबों और उद्वरणों से भागते हैं और अब वो कला के नाम से भी भाग रहे हैं। लम्बे समय से ही लेखन, कला और नाटक पर वामपंथ का बड़ा प्रभाव रहा। कमाल की बात ये है कि इस बार वामपंथी, इस्लामिस्ट और नव-उदारवादी कला से ही भड़क गए हैं।

विवेक अग्निहोत्री ने द कश्मीर फाइल्स फ़िल्म बनाने का जो जोखिम उठाया, उस से सच और न्याय के ध्वजवाहकों पर तुषारापात हो गया है। उन्हें वास्तविकता ने असहज कर दिया है। वास्तव में इसकी वजह ये है कि जिन लोगों की तमाम उम्र अपने ही जैसे लोगों के बीच बंद कमरों में सस्ती शराब के साथ ‘विमर्श’ करने में गुजर गयी हो और जिनका यही अभ्यास उनकी पहचान बन गया हो, उन्हें वास्तविकता इसी तरह असहज कर देती है।

‘द कश्मीर फाइल्स’ का अधिकांश हिस्सा मसूरी में फिल्माया गया है। इसमें मसूरी के गाँधी चौक को कश्मीर के लाल चौक के रूप में दिखाया गया है। ‘द कश्मीर फाइल्स’ के सिनेमाघर में शुरू होते ही कहीं भी आपको आस-पास झाँकने की फुर्सत नहीं होती। शुरूआती दृश्य में ही गली में हथियार ले कर घूम रहे ‘आजादी के इस्लामी नायक’ और उनके मजहबी नारे उस खौफ का एहसास कराने में सफल रहे हैं जो कश्मीरी हिन्दुओं ने सहा होगा।

मस्जिदों के लाउडस्पीकर से ‘काफिरों’ के खिलाफ सन्देश जारी कर दिए गए थे, महिलाओं को ‘माल ए गनीमत’ कहने वालों ने फिर अपनी मजहबी निष्ठा दोहराई। फिल्म निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने कश्मीर की सच्चाई को दिखाने में कहीं पर भी तथ्यों के बीच ‘नेहरुवादी सेकुलरिज्म’ को नहीं आने दिया है।

जिन्हें सच असहज करता है वो इस फिल्म को ही प्रॉपगैंडा साबित करने का प्रयास भी कर रहे हैं। फिल्म, कला, गीत, नाटक की ख़ास बात होती है कि यह कहानी को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का जरिया बनता है। नैरेटिव और संचार पर इस्लामी हुकूमत आज भी उतनी ही प्रबल है जितनी कि भारत की आजादी के दौरान। यह आम बात है कि आप कश्मीरी हिन्दुओं के हितों की बात करें तो ट्विटर और यूट्यूब आपके चैनल ही डिलीट कर देंगे।

‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म ने एक काम बहुत आसानी से कर दिया है कि आज तक भी कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार को नकारने वाले दलीलें देने लगे हैं कि ‘उस वक्त कश्मीरी हिन्दुओं का नरसंहार हुआ था, लेकिन…” बौद्धिकों और नव-उदारवादियों को ऐसी दलीलों के लिए किसी भी हद तक उतरना होगा और वो ऐसा कर रहे हैं।

इस बीच वो भूल गए कि उन्हें तो सेकुलरिज्म की मजबूती के लिए हिन्दुओं के नरसंहार को नकारना था। कश्मीर की इस कहानी को कमतर बताने के चक्कर में वो यही भूल गए कि ऐसा कर के वो कम से कम मजहबी हत्यारों, मंदिर तोड़ने वाले बुतशिकनों, काफिरों की महिलाओं को तलाशने वाले ‘ऑप्रेस्ड माइनोरिटी’ के आतंक को आखिरकार स्वीकार कर चुके हैं। यह कई चरणों में ही संभव था। यह धीरे धीरे ही हुआ है और इसी तरह और भी लोग इस आतंक से परिचित होंगे। ‘ये हुआ ही नहीं’ से ‘ये हुआ लेकिन..’ ही दक्षिणपंथी धड़े के उभरने का संकेत है।

विवेक अग्निहोत्री ने इस्लामवादियों की दुखती नस को ऐसा मरोड़ा है कि ISIS के टॉयलेट साफ़ करने वाले इस्लामी फैक्ट चैकर और वामपंथी ‘बौद्धिक’ अब इस फिल्म के निर्माता और निर्देशक विवेक अग्निहोत्री को ‘कम संस्कारी’ साबित करने के लिए अपने शरीर के उस स्थान का जोर लगा रहे हैं जहाँ से वो आज तक सोचते आए हैं। यानी आज तक ये जिन संस्कारों का ही मजाक बनाते रहे, आज वही संस्कार इनके खुदा हैं क्योंकि ऐसा कर के उन्हें ये तसल्ली मिल रही है कि शायद वो विवेक अग्निहोत्री के इस योगदान को किसी तरह कुछ कम कर पाए।

हालाँकि, विवेक अग्निहोत्री अपने मकसद में पूरी तरह सफल रहे हैं। जो लोग निजी कारणों से विवेक की इस फिल्म के बीच ‘सिनेमा और सिनेमा को ले कर उनकी समझ’ का हवाला दे रहे हैं उन्हें यह जानना आवश्यक है कि द कश्मीर फाइल्स सिर्फ सिनेमा नहीं है। ये वो इतिहास है जिसे नैरेटिव की जंग में आप दूसरी किसी भी तरह से जान ही नहीं पाए। ‘द कश्मीर फाइल्स’ फ़िल्म को इसी वजह से आपको दो बार और हर बार देखना चाहिए- पहली बार इतिहास की जानकारी के लिए और दूसरी बार अपने भविष्य की जागरूकता के लिए।

यह जरुरी नहीं है कि हर चीज सिर्फ मनोरंजन की दृष्टि से देखी जाए। विवेक अग्निहोत्री को आज औसत या अवसरवादी कहने वाले स्वयं इन शब्दों को नहीं निगलना चाहेंगे। अभी आवश्यक यह है कि जिन लोगों ने ये ‘जोखिम’ उठाया है, उनका हौंसला बढ़ाया जाए ताकि और भी लोग सच को समझना और उस पर बात करने का जोखिम लें।

एक दर्शक के नाते यही कह सकता हूँ विवेक अग्निहोत्री ने इस फिल्म को बना कर पिछली सारी शिकायतें दूर कर दी हैं। आरोप लगाना एक आदत होती है और बाद में चरित्र बन जाता है। जैसे, आज आपकी मेड आलू की जगह जहर वाली खीर क्यों बना रही है, झालमूड़ी वाले ने आपके कहने पर मिर्च तक नहीं मुफ्त दी, सब्जीवाला आपको धनिया मुफ्त नहीं देता, जबकि आप ख्वाब ट्वीट कर के मोदी सरकार गिराने का देखते हों। तो ये सब समय के साथ अवसाद का रूप ले लेती है और उखाड़ आप घंटा कुछ ना पा रहे होते हैं।

विवेक अग्निहोत्री का काम फिल्म बनाना है। अगर वो एक कठिन विषय, जिसमें उस पक्ष का हित रखा गया हो, जिसके कि आप होने का दावा करते हैं, पर फिल्म बना रहा हो तो उसे क्यों नहीं समर्थन दिया जाना चाहिए? क्या आपके लिए कश्मीरी हिन्दुओं का नरसंहार और उनकी त्रासदी आपकी विवेक अग्निहोत्री से निजी खुन्नस और सिनेमा की आपकी अज्ञात समझ से बड़ा मुद्दा है?

कश्मीर में हिन्दुओं के नरसंहार के वृहद विषय को सिनेमा में या तीन घंटे की फिल्म में समेट पाना ही किसी भी निर्माता और निर्देशक के लिए एक दिवास्वप्न है। यही कुछ मजबूरियाँ फिल्म के आखिर में दिखती हैं जब ‘वोक कृष्णा’ अपनी बात भाषण के जरिए रख रहा होता है, जबकि मनोरंजन के विषय में फिल्म खुद ही अपनी कहानी कहती है।

कश्मीर फाइल्स के फिल्मांकन में इस कमी को नजरअंदाज किया जा सकता है क्योंकि इस दृश्य के पाँच-सात मिनट हॉल में एकदम सन्नाटा रहता है। लोगों की आँखों में वो हकीकत सुनते समय आँसू थे जिसे कहने नहीं दिया गया और जिसे कहने वाले अनपढ़ या मूर्ख साबित कर दिए गए।

अनुपम खेर और मिथुन चक्रवर्ती ने बेहतर अभिनय किया है। आतंकियों के फार्म हाउस से सीधा सम्बन्ध रखने वाली ‘प्रगतिशील बड़ी बिंदी ब्रिगेड’ की मल्लिका की भूमिका में पल्लवी जोशी ने अपने अभिनय से एक छाप छोड़ी है। ‘बैटमैन- दी डार्क नाइट’ फिल्म की बात हो या किसी अन्य निगेटिव किरदार की, अगर आप खलनायक के चरित्र से नफरत करने लगते हैं तो ये उस कलाकार की जीत है।

यह इस फिल्म की समीक्षा से अधिक इसे बनाने का हौंसला करने वालों की सराहना के लिए है। आप सच कहने का साहस करते हैं और आपको इसकी कीमत चुकानी होती है। हो सकता है कि आप अब उन लोगों कि ‘गुड बुक्स’ से भी निकाल दिए जाएँ। लेकिन विवेक अग्निहोत्री ने यह जोखिम उठाया है। कश्मीर के सच को सामने रखने के लिए उनके पिछले सभी किस्सों को क्लीनचिट दी जानी चाहिए।

फिल्म की कहानी क्या है, ये जो नहीं जानते वो हॉल में जरूर जाएँ। यह समीक्षा निर्माता के प्रोत्साहन के लिए है कि अगर अभी तक आपने ये फिल्म नहीं देखी है तो आप इसे देखें। यह हकीकत है कि इंटरनेट से फैज़ की शायरी पढ़ने वाला समाज का प्रगतिशील, खासकर उदारवादी युवा वर्ग वास्तव में कश्मीर के इस हिस्से को नहीं जानता होगा।

वो सिनेमाघरों में जा कर मस्जिदों से होने वाले ऐलान को जरूर देखें और सुनें। मजहबी आतंकियों ने किस तरह कश्मीरी हिन्दुओं को उनके पति के रक्त से सने चावल निगलने को विवश किया ये स्कूल, कॉलेज और हर यूनिवर्सिटी में सेकुलरिस्म की पढ़ाई कर रहे छात्र तक पहुँचनी आवश्यक है। आपका सिलेबस और उसका इतिहास आपको ये बताने की इजाज़त नहीं देता इसलिए आप सिनेमा का रुख अवश्य करें।

कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार के घटनाक्रम- 1984 में कॉन्ग्रेस के 404 सीटें जीतने और जगनमोहन की नियुक्ति के बाद के 1989 तक राहुल गाँधी के पिता की सरकार का मौन, 1987 में अब्दुल्ला द्वारा मतदान ही हाईजैक कर लिए गए और केंद्र मौन रहा। सितम्बर-नवम्बर 1989 के नरसंहार हुए। 3 दिसंबर, 1989 में वीपी सिंह चर्चा में आए, प्रधानमंत्री बने और आखिरकार 1990 में कश्मीरी हिन्दुओं को पलायन करने पर मजबूर कर दिया गया।

इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम तक लोग स्वयं अपने ही चिंतन से पहुँचे तो बेहतर होगा। वरना ऐसे नेहरूछाप इतिहासकार भी बाजार में दौड़ते दिख रहे हैं जो यह तक साबित करना चाहते हैं कि मोपला नरसंहार, खिलाफत, मरीचझापी, चितपावन ब्राह्मणों की हत्या सिर्फ इसलिए की गई थी क्योंकि इसके कई दशकों बाद एलके आडवाणी रथयात्रा करने निकलने वाले थे।

फिल्म यह समझाने में भी सफल रही है कि घाटी से अनुच्छेद 370 हटने के क्या मायने रहे हैं। वर्तमान सरकार घाटी में प्रबल इच्छाशक्ति से कश्मीरी हिन्दुओं को वापस बसाने का काम कर रही है। घाटी में जो सदियों से सेकुलरिज्म का मवाद पसरा है, उसे समेटने में समय तो लगेगा ही।

अपनी टिप्पणी जोड़ें
Share.
Exit mobile version